हिंदू मैरिज एक्ट, 1955 के तहत जुडीशियल सेपरेशन और डाइवोर्स का क्या दायरा है?

हिंदू मैरिज एक्ट, 1955 के तहत जुडीशियल सेपरेशन और डाइवोर्स का क्या दायरा है?

जुडीशियल सेपरेशन और डाइवोर्स दोनों अलग है। आईये जानते है कोर्ट के अनुसार इन दोनों के क्या दायरे है।

जुडीशियल सेपरेशन और डाइवोर्स के दायरे:-

(1) हिंदू मैरिज एक्ट, 1955 के सेक्शन 13(1) के तहत जुडीशियल सेपरेशन और डाइवोर्स दोनों सेम आधारों पर मिलते है, लेकिन दोनों अलग-अलग तरह राहत पहुंचाते है।

(2) जुडीशियल सेपरेशन शादी को ख़त्म नहीं करता, इसके बाद भी शादी बनी रहती है। वहीँ, डाइवोर्स के बाद कपल की शादी कानूनी रूप से ख़त्म हो जाती है।

(3) सेपरेशन के बाद दोनों में से कोई भी पार्टनर दूसरी शादी नहीं कर सकता है। दूसरी तरफ, डाइवोर्स की डिक्री मिलने के बाद दोनों दूसरी शादी करने के लिए आज़ाद है।

(4) जुडीशियल सेपरेशन की डिक्री जारी होने के बाद कपल एक दूसरे के साथ सैक्सुअल रिलेशन बनाने के लिए बाध्य नहीं हैं।

(5) पिटीशन फाइल होने पर जिस कोर्ट के पास डाइवोर्स की डिक्री रद्द करने की पावर है। सिर्फ उसी कोर्ट के पास सेपरेशन की डिक्री रद्द करने की पावर है।

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केस क्या है:-

एक मैरिड कपल 2009 से अलग रह रहे थे। 12 साल से भी ज्यादा समय से अलग रहने के कारण कपल के बीच प्यार और इमोशंस ख़त्म हो चुके थे। दरअसल, हस्बैंड ने अपनी वाइफ के साथ रहने के लिए सारी कोशिशें की थी। लेकिन, वाइफ ने उसके साथ रहने से मना कर दिया। वाइफ ने हमेशा इस शादी से अनिच्छा जताई। हस्बैंड के साथ गलत बर्ताव किया। साथ ही, बिना किसी सबूत के हस्बैंड और ससुराल वालों के खिलाफ दहेज की मांग के झूठे आरोप लगाए। और बाद में बिना किसी वैलिड रीज़न के हमेशा के लिए ससुराल छोड़ दिया। और इन 12 सालों में वाइफ ने कभी अपने हस्बैंड से मिलने या समझौता करने की कोशिश भी नहीं की। कानून के तहत इस तरह का बर्ताव क्रूरता का आधार माना जाता है। तो इसका मतलब साफ़ है कि वाइफ ने हस्बैंड पर मानसिक क्रूरता की है।

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इस सबके बाद, हस्बैंड ने फैमिली कोर्ट में डाइवोर्स की पिटीशन फाइल की। लेकिन फैमिली कोर्ट ने उसे डाइवोर्स की बजाय, जुडिशियल सेपरेशन की डिक्री दी। डिक्री जारी होने के बाद हस्बैंड ने फैमिली कोर्ट के इस फैसले को चुनौती दी। हस्बैंड ने कहा कि उसके पास अपनी वाइफ से कानूनी रूप से अलग होने के दो ऑप्शन्स थे। पहला जुडिशियल सेपरेशन और दूसरा डाइवोर्स। जिसमे से उसने डाइवोर्स को चुना था। तो फैमिली कोर्ट को कोई अधिकार नहीं है की वह उसके फैसले को बदल दे। बाद में, यह केस दो जजों की बेंच द्वारा सोल्व किया गया।

बेंच द्वारा फाइनल आर्डर:-

बेंच के अनुसार, इस तरह की शादी को दबाव में ज़ारी रखना, सेक्शन 13(1)(ia) के तहत क्रूरता के बराबर माना जाता है। इस केस में, वाइफ द्वारा हस्बैंड पर मानसिक क्रूरता का आधार प्रूफ हो गया था। तो फैमिली कोर्ट द्वारा हस्बैंड को डाइवोर्स की राहत मिलनी चाहिए थी। क्योंकि, कपल केवल 3 साल तक साथ रहा, और 12 साल से अलग रह रहा था। वाइफ ने पिछले 12 सालों में शादी को लेकर कोई सकारात्मक कदम भी नहीं उठाया था। जिससे साफ़ पता लगता है कि दोनों पार्टनर्स के बीच कुछ नहीं बचा है। इसलिए डाइवोर्स के बजाय जुडिशल सेपरेशन का आर्डर देना गलत था।

“फैमिली कोर्ट को केस को पिटीशनर के पॉइंट ऑफ़ व्यू से समझना चाहिए था।” अगर पिटीशनर तय करने में सक्षम है कि उसे दोनों राहतों में से कौन सी राहत चाहिए। तो यह फैसला लेने का अधिकार सिर्फ पिटीशनर का ही है। कोर्ट पिटीशनर को उस राहत को एक्सेप्ट करने के लिए मजबूर नहीं कर सकती, जो उसने अपने लिए नहीं मांगी है। हालाँकि, कोर्ट अपनी सलाह दे सकती है, लेकिन पिटीशनर द्वारा मांगी हुई राहत को बदल नहीं सकती।

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इसके बाद, बेंच ने फैमिली कोर्ट द्वारा पास किये गए जुडिशियल सेपरेशन की डिक्री के फैसले को रद्द कर दिया। और वाइफ को हिंदू मैरिज एक्ट, 1955 के सेक्शन 13(1)(ia) के तहत क्रूरता का दोषी करारा दिया। साथ ही, हस्बैंड की डाइवोर्स की पिटीशन को एक्सेप्ट करते हुए, उसे डाइवोर्स की डिक्री दे दी गयी।

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