परेंट्स की इनकम और उनका पढ़ा लिखा होना, बच्चे की कस्टडी तय करने का एकमात्र तरीका नहीं: छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट

परेंट्स की इनकम और उनका पढ़ा लिखा होना, बच्चे की कस्टडी तय करने का एकमात्र तरीका नहीं: छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट

बच्चों की कस्टडी हिंदू मैरिज एक्ट, 1955 के सेक्शन 26 के तहत दी जाती है। आईये जानते है इस केस में कोर्ट ने क्या फैसला लिया है। 

केस क्या है:-

निमिश एस अग्रवाल v/s श्रीमती रूही अग्रवाल के केस में, फादर ने लोअर कोर्ट के फैसले के खिलाफ अपने बच्चे की कस्टडी मांगते हुए एक पिटीशन फाइल की थी, जहां फादर से बच्चे से मिलने का अधिकार भी वापस ले लिया गया था। कपल ने साल 2007 में शादी की और 2012 में एक बच्चे का जन्म हुआ। बाद में, गार्डियन एन्ड वार्ड एक्ट, 1890 के सेक्शन 25 के तहत, फादर ने बच्चे की कस्टडी की मांग करते हुए एक एप्लीकेशन फाइल की। 

कोर्ट ने कहा कि इस प्रोविज़न के तहत, कोर्ट द्वारा इंटरिम आर्डर पास किये जा सकते है क्योंकि यह नाबालिग बच्चों की कस्टडी, मेंटेनेंस और एजुकेशन के सम्बन्ध में जरूरी है।

कोर्ट ने कहा कि ‘बच्चे का कल्याण’ सबसे जरूरी है। कोर्ट यह नहीं देखता कि दोनों पक्ष क्या कह रहे हैं, बल्कि वह सिर्फ अपने अधिकारों का यूज़ करके नाबालिगों के कल्याण के लिए फैसले करता है। कोर्ट ने यह भी कहा कि कस्टडी के केस का फैसला करते समय बच्चे का कल्याण सबसे पहले सोंचा जाना चाहिए। 

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कस्टडी के केसिस में लिए गए फैसले:- 

गीता हरिहरन और अन्य v भारतीय रिजर्व बैंक और अन्य (1999) के केस में सुप्रीम कोर्ट ने डिसाइड किया था कि हिंदू माइनॉरिटी एंड गार्डियनशिप एक्ट, 1956 के सेक्शन 6 के प्रोविज़न के तहत पिता के बाद माँ ही बच्चे की गार्डियन होगी। यह माना गया कि कस्टडी के केस में, प्रोविज़न में ‘बाद’ शब्द के यूज़ का कोई महत्व नहीं होगा, क्योंकि नाबालिग का सर्वोत्तम हित सबसे पहले होना चाहिए।

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यह भी माना गया कि प्रोविज़न में ‘आफ्टर’ शब्द का मतलब ‘आफ्टर लाइफटाइम’ नहीं है। इस प्रकार, 5 साल से बड़े बच्चे के पिता का नेचुरल गार्डियन होना जरूरी नहीं है, बल्कि बच्चे का कल्याण जरूरी है।

इसके अलावा, यह निल रतन कुंडू और अन्य v अभिजीत कुंडू (2008) के केस में डिसाइड किया गया कि अगर बच्चा फैसला लेने के लिए पर्याप्त उम्र का है, तो कोर्ट को उसकी परेफरेंस को ध्यान में रखना चाहिए। हालाँकि, कोर्ट का फाइनल डिसिज़न बच्चे के कल्याण को ध्यान में रखते हुए किया जाना चाहिए।

पेरेंट्स का फाइनेंसियल स्टेटस मैटर करता है या नहीं:- 

फाइनेंसियल स्टेटस पर, कोर्ट ने देखा कि दोनों पार्टनर्स की फाइनेंसियल कंडीशन सेम नहीं है। हालांकि, कोर्ट ने इस बात पर भी विचार किया कि पैसे की वैल्यू बच्चे के चेहरे पर मुस्कान नहीं लाएगा। एक बच्चा किसी ऐसे व्यक्ति के साथ आराम से रह सकता है,जो फाइनेंसियल वीक हो। फाइनेंसियल कंडीशन बच्चे की कस्टडी का फैसला करते समय किया जाने वाला कोई मापदंड नहीं है।

अपीलकर्ता की यह बात कोर्ट ने नहीं मानी कि वह भारत के किसी भी स्कूल में बच्चे को अच्छी एजुकेशन प्राप्त करा सकता है। कोर्ट ने यह ऑब्ज़र्व किया कि, “कस्टडी पैसे और पर्सनालिटी के बीच रस्साकशी नहीं है। सबसे अच्छे बोर्डिंग स्कूल में बच्चे का प्लेसमेंट बच्चे की खुशी नहीं हो सकता है। एक बच्चा हॉस्टल में आइसोलेशन में रहने की बजाय अपने पेरेंट्स के साथ एक क्षेत्रीय, स्थानीय स्कूल में ज्यादा खुश रह सकता है।

इस केस में कोर्ट ने 9 साल के बच्चे की कस्टडी उसकी मां को दी। कोर्ट का विचार था कि “यह एक ह्यूमन प्रॉब्लम है और इसे ह्यूमन टच से सॉल्व किया जाना चाहिए।”

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लीड इंडिया शादी, डाइवोर्स, बच्चों की कस्टडी, डोमेस्टिक वायलेंस, मेंटेनेंस आदि से रिलेटेड केसिस में स्पेशलाइजेशन रखने वाले एडवोकेट्स प्रदान करती है। पेपरवर्क को पूरा करने के साथ-साथ लीगल एडवाइस भी दी जाती है।

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