नेशनल लेवल पर माइनॉरिटीज़ के रूप में मुस्लिम्स, क्रिस्चंस, सिखों, बौद्धों, पारसियों और जैनियों की नोटिफिकेशन को चैलेंज देने के लिए सुप्रीम कोर्ट में पिटीशन फाइल

नेशनल लेवल पर माइनॉरिटीज के रूप में मुस्लिम्स, क्रिस्चंस, सिखों, बौद्धों, पारसियों और जैनियों की नोटिफिकेशन को चैलेंज देने के लिए सुप्रीम कोर्ट में पिटीशन फाइल

देवकीनंदन ठाकुर द्वारा संविधान के आर्टिकल 29 और 30 के तहत, डिस्ट्रिक्ट लेवल पर माइनॉरिटीज़ की सही पहचान करके, उन्हें प्रॉफिट देने के लिए एक पीआईएल फाइल की गयी थी। 

फाइल की गयी पीआईएल के अनुसार, 1993 में भारत सरकार/ इंडियन गवर्मेंट द्वारा मुसलमानों, सिखों, बौद्धों, पारसियों और जैनियों को नेशनल लेवल पर अल्पसंख्यक/माइनॉरिटी घोषित किया गया था, जो की एक तर्कहीन और संविधान के आर्टिकल 14, 15, 21, 29 और 30 के खिलाफ/अगेंस्ट था।

23 अक्टूबर 1993 को, इन्डियन गवर्मेंट के वेलफेयर डिपार्टमेंट ने इन पांच धर्मों को नेशनल कमीशन ऑफ़ मिनोरिटीज़ एक्ट, 1992 के सेक्शन 2 (सी) के तहत “माइनॉरिटी कम्युनिटीज़” के रूप में पहचान दी थी।

यह पीआईएल नेशनल कमीशन फॉर मिनोरिटीज़ एक्ट, 1992 के सेक्शन 2(सी) की वैलिडिटी को भी चैलेंज करती है। पिटीशनर के अनुसार, नेशनल कमीशन फॉर मिनोरिटीज़ एक्ट, 1992 के सेक्शन 2(सी) के तहत सेंट्रल गवर्मेंट को “बेलगाम शक्ति” दी गयी है, जिसके तहत वह किसी को भी अपनी मर्जी से “मिनोरिटीज़” डिक्लेअर कर सकता है। लेकिन, ऐसा करना बिल्कुल मनमाना और संविधान के प्रोविज़न के खिलाफ है।

पिटीशन में साफ़ कहा गया कि लद्दाख में सिर्फ 1% हिंदू, मिजोरम में 2.75%, लक्षद्वीप में 2.77%, कश्मीर में 4%, नागालैंड में 8.74%, मेघालय में 11.52%, अरुणाचल प्रदेश में 29%, पंजाब में 38.49% और मणिपुर में 41.29% हिंदू हैं। लेकिन केंद्र सरकार ने उन्हें कभी मिनोरिटीज़ डिक्लेअर नहीं किया और ना ही इससे रिलेटेड कोई भी फैसिलिटी उन्हें दी गयी है। 

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दूसरी तरफ, जिन मुस्लिम्स को मिनोरिटीज़ डिक्लेअर किया गया है, उनकी आबादी/पॉपुलेशन लक्षद्वीप में लगभग 96.58%, कश्मीर में 95%, लद्दाख में 46% है। इसी तरह नागालैंड में 88.10%, मिजोरम में 87.16% और मेघालय में 79.59% पॉपुलेशन होने के बावजूद भी वहां के क्रिस्चंस को भी माइनॉरिटीज़ डिक्लेअर किया गया है। 

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जबकि, पंजाब में सिख की पॉपुलेशन केवल 57.69% और लद्दाख में सिर्फ 50% बौद्ध हैं। वास्तविकता में, यह असली माइनॉरिटीज़ है। साथ ही, संविधान के आर्टिकल 30 के तहत, अपनी पसंद की संस्था/इंस्टीटूशन बनाने और उसे एडमिनिस्टर करने का पूरा अधिकार है। 

टीएमए पाई केस (2002) में दिए गए फैसले को भी मेंशन किया गया था, जिसके अनुसार सभी राज्य/स्टेट को भाषा और धर्म के बेस पर माइनॉरिटीज़ का चुनाव करने का अधिकार दिया जायेगा।

पिटीशनर की यह मांग है कि केंद्र/सेंटर ‘माइनॉरिटीज़’ को परिभाषित करे और ‘डिस्ट्रिक्ट लेवल पर सही माइनॉरिटीज़ की पहचान करने के लिए नोटिफिकेशन्स जारी करे, ताकि जो ग्रुप सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक रूप से संख्या में बहुत कम है, उन धार्मिक और भाषाई ग्रुप के लोगों को आर्टिकल 29 और 30 के तहत बेनिफिट और प्रोटेक्शन दिया जा सके। 

यह भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि अश्विनी उपाध्याय ने भी इसी तरह की एक पीआईएल फाइल की थी, जिसमें नेशनल कमीशन फॉर मिनोरिटीज़ एक्ट, 1992 और नेशनल कमीशन फॉर मिनोरिटी एजुकेशनल इंस्टीटूशन्स के प्रोविजन्स को चैलेंज किया गया था, ताकि उन स्टेट और यूनियन टेरेटरीज़ में हिंदुओं की माइनॉरिटी सिचुएशन सुनिश्चित की जा सके, जहां वह सच में माइनॉरिटी हैं।

सेंटर ने उक्त पिटीशन के जवाब में कहा कि संबंधित स्टेट गवर्नमेंट द्वारा हिंदुओं को भी माइनॉरिटी डिक्लेअर किया जा सकता है। हालांकि, बाद में, सेंट्रल गवर्नमेंट ने अपनी बात बदल दी और एक एफिडेविट फाइल किया, जिसमें कहा गया कि सिर्फ सेंट्रल गवर्नमेंट के पास माइनॉरिटीज़ को अधिसूचित/नोटिफाई करने की शक्ति/पावर है। हालाँकि, फ्यूचर में आने वाली अनएक्सपेक्टेड कॉम्प्लीकेशन्स से बचने के लिए, यह केवल संबंधित स्टेट गवर्नमेंट और अन्य स्टेकहोल्डर्स के साथ चर्चा होने के बाद ही तय किया जा सकता है।

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10 मई को सुप्रीम कोर्ट ने सेंट्रल गवर्नमेंट द्वारा सिचुएशन को बदलने के लिए उनसे निराशा जताई और स्टेट गवर्नमेंट के साथ तय की गई रिपोर्ट फाइल करने के लिए 3 महीने का टाइम पीरियड दिया। उम्मीद करते है कि सेंट्रल गवर्नमेंट अब सुप्रीम कोर्ट को निराश नहीं करेगी।

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