क्रिमिनल केस का पूरा प्रोसेस क्या है?

क्रिमिनल केस में आने वाले ज़रूरी सिचुऎशन्स क्या है?

भारत में क्रिमिनल लॉ और सभी क्रिमिनल केसिस, मेनली तीन एक्ट्स के तहत डील किये जाते है –

  • भारतीय दंड संहिता, 1860 या इंडियन पीनल कोड, 1860 
  • भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 या इंडियन एविडेंस एक्ट, 1872
  • दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 या क्रिमिनल प्रोसीजर कोड, 1973

आईपीसी (इंडियन पीनल कोड) सब्सटेंटीव लॉ है जिसके तहत सभी जुर्म की सज़ा बताई गयी है जबकि सीआरपीसी (क्रिमिनल प्रोसीजर कोड) और एविडेंस एक्ट प्रोसीज़रल लॉ हैं जिनमे सभी सज़ा का प्रोसीजर बताया गया है। क्रिमनल केसिस में आने वाली ज़रूरी सिचुएशन या स्टेजिस को समझने से पहले क्रिमिनल लॉ की कुछ और जरूरी बातों को समझते हैं-

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प्री-ट्रायल स्टेज – 

सबसे पहले ऑफिसर्स को यह देखना होगा कि किया गया अपराध/क्राइम कॉग्निजिबल ओफ्फेंस है या नॉन-कॉग्निजिबल ओफ्फेंस।

कॉग्निजिबल ओफ्फेंस – 

इन क्राइम्स के तहत, किसी व्यक्ति को अरेस्ट करने के लिए पुलिस ऑफिसर को अरेस्ट वारंट की जरूरत नहीं होती है क्योंकी इसके तहत केवल सीरियस क्राइम्स आते है। यह क्राइम्स होने पर पुलिस सीधे एफआईआर फाइल करके इन्वेस्टीगेशन शुरू कर सकती है, इसके लिए पुलिस को मजिस्ट्रेट की सहमति की जरूरत नहीं होती है।

नॉन-कॉग्निजिबल ओफ्फेंसीस – 

यह क्राइम्स सीआरपीसी के सेक्शन 2(I) के तहत समझाये गए है। इन क्राइम्स के तहत किसी व्यक्ति को अरेस्ट करने के लिए पुलिस ऑफिसर को अरेस्ट वारंट की जरूरत होती है। इन क्राइम्स में लगभग 3 साल की जेल या जुर्माना हो सकता है। इन क्राइम्स के केसिस में, एग्जामिनेशन शुरू करने से पहले ऑथॉराइज़ेशन करने की जरूरत होती है।

मजिस्ट्रेट के सामने पेशी-

सबसे पहले, आरोपी को अरेस्ट करने के 24 घंटे के अंदर मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया जाता है। साथ ही, जितना समय आरोपी को लेकर आने और जाने में लगता है उसे इस समय में से कम कर दिया जाता है।  

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उसके बाद, सीआरपीसी के चैप्टर XXXIII के तहत रिमांड या बेल दी जाती है।

फिर, अरेस्ट किये हुए व्यक्ति को अलग अलग बचने के तरीके और राइट्स दिए जाते है।

इन्वेस्टीगेशन पूरी होने के बाद पुलिस ट्रायल/केस शुरू करने के लिए मजिस्ट्रेट को एक फाइनल रिपोर्ट सबमिट करती है, जिसे चार्जशीट कहा जाता है।

क्रिमिनल ट्रायल के स्टेज या चरण  – 

भारत के कानून ने  क्रिमिनल केसिस को सॉल्व करने के बहुत सारे अलग अलग प्रोसेदूरेस दिए हैं। इन्हें मोटे तौर पर वारंट, समरी और समन ट्रायल के रूप में बांटा जा सकता है। इसी के साथ, सेशन ट्रायल भी ट्रायल का एक रूप हैं। इन्हे सेशन कोर्ट के सामने सुना जाता है और इनकी अपनी प्रोसेस होती हैं।

सीआरपीसी के सेक्शन 2(x) के तहत बताये गए प्रोविजन्स के अनुसार एक वारंट केस में दो या उससे ज्यादा सालों के लिए जेल की सज़ा या मौत की सज़ा हो सकती है।

सेक्शन 2(w) के तहत दिया गया समन केस एक वारंट केस नहीं है। यह केस उन क्राइम्स के लिए है जिनमे 2 साल से कम के लिए कल की सज़ा दी जाती है। 

समरी  ट्रायल्स जिन्हें अब्रीज ट्रायल्स के रूप में भी जाना जाता है। यह केस ज्यादा सीरियस मैटर्स में नहीं बल्कि बहुत कम ाज़ा वाले केसिस होते है। इन ट्रायल्स में 6 महीने से कम की जेल की सज़ा के प्रोविजन्स है। 

एक क्रिमिनल केस आने वाले सभी स्टेजिस इस प्रकार है-

चार्जिस का फ्रेम किया जाना –

मजिस्ट्रेट के सामने पुलिस रिपोर्ट पेश किये जाने के बाद, मजिस्ट्रेट को यह तय करना होता है कि क्या पेश किये गए सबूत सच में आरोपी द्वारा क्राइम किए जाने की ओर इशारा कर रहे है। 

मजिस्ट्रेट इस लेवल पर यह तय नहीं करता कि आरोपी दोषी है या नहीं, लेकिन अगर रिपोर्ट पर क्राइम साबित करने के लिए जरूरी मटीरियल प्रेजेंट है जो इस तरफ इशारा करती है कि क्राइम आरोपी द्वारा ही किया गया था, तो कोर्ट फैसला कर सकती है। 

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कोड के सेक्शन 250 के तहत आरोप तय करना आरोपी के सामने किया जाना चाहिए क्योंकि आरोपी को अपने सही बचाव करने के लिए उसके अगेंस्ट लगाए गए सभी क्राइम्स को जानने का अधिकार है। 

दोषी की प्ली –

दोषी की प्ली उस रिपोर्ट को कहा जाता है जिसमे दोषी अपनी तरफ की दलीलें मजिस्ट्रेट के सामने पेश करता है। आरोपों/चार्जिस और सभी दलीलों को पढ़ने के बाद मजिस्ट्रेट आरोपी पर लगाए गए अभी आरोपों के लिए दोषी को अपनी बात कहने का मौका देता है। अगर आरोपी अपने ऊपर लगे आरोपों को एक्सेप्ट कर लेता है तो इस सिचुएशन में मजिस्ट्रेट आरोपी को दोषी ठहरा कर कानून के तहत सजा सुनाता है। हालांकि, मजिस्ट्रेट को यह सुनिश्चित करता है कि दोषी अपनी इच्छा से अपना आरोप एक्सेप्ट कर रहा है और उसके अगेंस्ट लगाए गए सभी चार्जिस के बारे में उसे पूरी जानकारी है।

वहीं दूसरी तरफ अगर आरोपी अपने ऊपर लगे आरोपों को एक्सेप्ट नहीं करता है और खुद के बेगुनाह होने का दावा करता है तो कोर्ट के सामने केस की प्रोसीडिंग्स शुरू की जाती है।

सबूतों के बेस पर दोषी ठहराना –

कोर्ट ने इलज़ाम लगाने वाली पार्टी को कोर्ट के सामने दोष को साबित करने के लिए अपने सबूत पेश करने की इंस्ट्रक्शंस दी। इस लेवल पर इलज़ाम लगाने वाली पार्टी को गवाहों या डाक्यूमेंट्स के रूप में सबूत पेश करके आरोपी के क्राइम को प्रूव करना होता है।

आरोपी का बयान-

सेक्शन 313 के तहत आरोपी को बुलाया जाता है और वारंट केसिस में शपथ दिलाकर उसकी इन्वेस्टीगेशन की जाती है। आरोपी को उसके अगेंस्ट पेश किये गए सबूतों की सिचुऎशन्स या उसके बचाव के लिए किसी और फैक्टर को एक्सप्लेन करने का मौका दिया जाता है।

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बचाव के सबूत –

इस लेवल पर क्रिमिनल डिफेंस लॉयर/बचाव पक्ष का वकील विपक्ष के द्वारा लगाए गए आरोपों को खारिज करने के लिए अपने सबूत और गवाह पेश करता है। क्रिमिनल न्यायशास्त्र के जनरल रूल क़्यूएएस में कहा गया है कि एक व्यक्ति तब तक निर्दोष है जब तक कि वह कोर्ट के सामने दोषी साबित नहीं हो जाता है।  

इस प्रकार इलज़ाम लगाने वाली पार्टी द्वारा अपना केस पेश करने के बाद, आरोपी की बेगुनाही को साबित करने की जिम्मेदारी बचाव पक्ष/डिफेन्स क्रिमिनल लॉयर की होती है।

फाइनल डिबेट और फैसला – 

इल्जाम लगाम वाली पार्टी और बचाव करने वाली पार्टी दोनों कोर्ट के सामने अपनी दलीलें पेश करते हैं और अपोजिट पार्टी द्वारा पेश किये गए सबूतों को खारिज करने की कोशिश करते हैं।

पार्टीज़ द्वारा पेश किये गए सबूतों और तर्कों/आर्ग्युमेंट्स के आधार पर कोर्ट अपना फैसला लेती है की आरोपी दोषी है या निर्दोष। यह एक न्यायिक/जुडिशल प्रोसेस है जहां फैसला केस के फैक्ट्स और केस हैंडल करने वाले जज के दिमाग पर डिपेंड होता है। दोषी पाए जाने पर आरोपी को कानून के तहत सजा दी जाती है।

ऊपर बताये गए सभी पॉइंट्स एक क्रिमिनल केस में शामिल होने वाले कॉमन स्टेप्स है। हालांकि, ज्यादा जानकारी के लिए आपको एक एक्सपीरिएंस्ड क्रिमिनल लॉयर से कांटेक्ट करना चाहिए जो आपको लीगल प्रोसीजर के साथ-साथ आपके केस में जरूरी बाकि ऑप्शंस भी उपलब्ध करा सकता है। लीड इंडिया आपको एडवोकेट्स की एक टीम प्रदान करता है, जिनके पास क्रिमिनल लॉ से रिलेटेड केसिस को सॉल्व करने का अच्छा एक्सपीरियन्स है और जो आपको उपयुक्त मार्गदर्शन और सलाह दे सकते हैं।

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