हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने अपनी एक टिप्पणी के माध्यम से उच्च न्यायालयों से कहा है कि शीघ्रता से फैसला न आना अथवा निर्णय देने में देरी वास्तव में संविधान के आर्टिकल 21 का उल्लंघन है । इसलिए सभी न्यायालयों को चाहिए कि वे इससे बचें। सुप्रीम कोर्ट के इस टिप्पणी के अनुसार
“न्याय के अधिकार के विषय में हर एक नागरिक का यह अधिकार है कि उसे शीघ्रता से न्याय मिले । यदि किसी पक्ष को न्याय मिलने में देरी लगती है तो इसका मतलब यह है दुःखी पक्ष को अगले स्तर पर न्याय के संबंध में अगले विकल्पों की तलाश करने से भी वंचित रखा जा रहा है । इसलिए न्याय के संबंध में देरी करना आम आदमी के अधिकारों का हनन है।
क्या ट्रायल में देरी आर्टिकल 21 का उल्लंघन है?
ओडिशा हाई कोर्ट ने इस विषय पर अपनी एक टिप्पणी में कहा कि
यदि किसी व्यक्ति को अनुचित और अन्याय पूर्ण प्रक्रिया के तहत उसकी स्वतंत्रता से वंचित कर किया जाता है तो यह भारत के संविधान के आर्टिकल 21 का उल्लघंन होगा। कोई भी ऐसी प्रक्रिया जो त्वरित रूप से ट्रायल को निश्चित नहीं करती है उसे उचित या निष्पक्ष नहीं ठहराया जा सकता यह आर्टिकल 21 के प्रावधानों के साथ खिलवाड़ होगा।
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क्या कहता है संविधान का आर्टिकल 21
भारत के संविधान में आर्टिकल 21 के अनुसार ” किसी भी व्यक्ति को विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अतिरिक्त उसके जीवन और वैयक्तिक स्वतंत्रता के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता है।”
आर्टिकल 21 में मूल रूप से तीन बातों का समावेश देखने को मिलता है ।
- जीवन की स्वतंत्रता ( Freedom Of Life)
- दैहिक स्वतंत्रता ( Personal Liberty )
- विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया ( Procedure Established by Law)
जीवन की स्वतंत्रता का अर्थ किसी भी इंसान के प्राणों की स्वतंत्रता से है । अतः यदि कोई व्यक्ति जिसके पास खाने को कुछ भी नहीं है और भूख से उसके प्राण जा सकते हैं । ऐसे समय में यदि वो न्यायालय का दरवाजा खटखटाता है तो न्यायालय के आदेश पर उस जगह की सरकार को अमुक व्यक्ति के भोजन पानी की व्यवस्था करनी पड़ेगी।
दैहिक स्वतंत्रता के अनुसार भारत का संविधान भारत के प्रत्येक नागरिक को शारीरिक स्वतंत्रता देता है तथा बगैर किसी की अनुमति से किसी को भी शारीरिक रूप से बाध्य नहीं किया जा सकता।
उपरोक्त दोनों प्रकार की स्वतंत्रता आम नागरिक का अधिकार है । इसलिए प्राण और दैहिक स्वतंत्रता को केवल विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के आधार पर ही छीना जा सकता है अथवा उसके इन अधिकारों साथ छेड़छाड़ की जा सकती है।
ओडिसा हाई कोर्ट का क्या निर्णय है ट्रायल के लिए
हाल ही में उड़ीसा हाई कोर्ट ने 8 साल से हिरासत में लिए गए आदिवासी चरमपंथियों के लिए कोर्ट की सुनवाई को और तेज करने को कहा है । जस्टिस सुभाशीष और सावित्री राठो की पीठ ने आदिवासी याचिकाकर्ताओं के आधार पर कहा है कि
“याचिकाकर्ता पिछले 8 साल से हिरासत में हैं। याचिकाकर्ताओं को कुछ मामलों में आरोपी बताया गया है लेकिन उसके लिए अभी जांच भी लंबित है । इसलिए याचिका कर्ताओं को सलाखों के पीछे रखना आर्टिकल 21 के तहत उनके अधिकारों का हनन है।”
कोर्ट ने आगे अपनी टिप्पणी में कहा ‘यह राज्य का दायित्व है कि वह न्याय पूर्ण और निष्पक्ष तरीके से मुकदमे को पूरा करने के लिए सभी जरूरी कदम उठाए’।
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