भारत में अब एडल्ट्री एक दंडनीय अपराध नहीं है।

भारत में अब एडल्ट्री एक दंडनीय अपराध नहीं है।

भारत में एडल्ट्री अर्थात व्यभिचार अब एक दंडनीय अपराध नहीं है। साल 2018 में भारत की सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक केस में आई पी सी की इस धारा को अपराध मुक्त कर दिया है। आज इस आलेख के माध्यम से हम समझेंगे कि क्यों भारत में अब एडल्ट्री एक दंडनीय अपराध नहीं है? और इस से जुड़ी अन्य महत्वूर्ण बातें। आइये समझते हैं कि क्यों भारत में अब एडल्ट्री एक दंडनीय अपराध नहीं है।

साल 2018 में पिछले 158 वर्षों से चले आ रहे आई पी सी की धारा 497 के तहत इसे एक अपराध के रूप में माना जाता था। लेकिन जोसेफ शाइन बनाम भारत संघ में माननीय सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद एडल्ट्री को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया गया। एडल्ट्री के अपराधीकरण के लिए दो प्रमुख विवाद थे।

  1. इस धारा ने पतियों को अपनी पत्नी के व्यभिचार के खिलाफ मुकदमा चलाने का तो अधिकार प्रदान किया मगर पत्नियों को अपने पति के व्यभिचार के खिलाफ शिकायत करने से वंचित रखा गया।
  2. पति के व्यभिचारी कृत्य की बात पर कोई भी धारा नहीं थी।

एडल्ट्री भले ही अब एक कानूनी अपराध न हो मगर धार्मिक मामलों में अब भी इसे एक बड़े अपराध के रूप में देखा जाता है। वहीं व्यभिचार आज भी तलाक लेने के लिए एक आधार है। हिन्दू धर्म में व्यभिचार पारिवारिक मूल्यों के ह्वास के रूप में देखा जाता है। वहीं इस्लाम में एडल्ट्री को जिना कहा जाता है और यह घोर अपराध कहलाता है। इसके लिए इस्लाम ,यहूदी और ईसाई धर्म मे मौत का प्रावधान है। वहीं बौद्ध धर्म भी इसे अपने पांच मूलभूत उपदेश में रखता है जिस से किसी को भी बचना चाहिए।

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वहीं कानून के अनुसार आई पी सी की धारा 497 वो धारा थी जो व्यभिचार को परिभाषित करती थी। आइये जानते हैं कि आख़िर वो क्या कारण थे कि आई पी सी की धारा 497 को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया गया।

2018 में आई पी सी की धारा 497 को सुप्रीम कोर्ट ने जोसेफ शाइन बनाम भारत संघ के मामले में सर्वसम्मति से जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस अजय मणिकारो खानविलकर, जस्टिस रोहिंटन नरीमन, जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस इंदु मल्होत्रा ​​की पांच जजों की संवैधानिक बेंच द्वारा रद्द कर दिया था। 

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यह भी कहा गया था कि उस मामले में यदि कोई पीड़ित पति या पत्नी आत्महत्या करता है, तो सबूत के आधार पर भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 306 के तहत आत्महत्या के लिए उकसावा माना जा सकता है।

हालांकि धारा 497 को गैर-अपराधीकृत कर दिया गया था उस के बाद  तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा और न्यायमूर्ति एएम खानविलकर द्वारा तत्काल मामले में की गई घोषणा के अनुसार इसे तलाक के लिए वैध आधार के रूप में माना जाता रहा।

साल 2018 के इस मामले में याचिकाकर्ता जोसेफ शाइन थे। जो इटली के एक होटल व्यवसायी थे। हालांकि वे व्यक्तिगत रूप से कानून से अप्रभावित थे। समाज के कल्याण और समाज में न्याय लाने के उद्देश्य से जनहित याचिका (पीआईएल) मामलों में लोकस स्टैंडी (कार्रवाई करने या अदालत में पेश होने का अधिकार या क्षमता) के मद्देनजर उनकी याचिका स्वीकार कर ली गई थी।

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याचिकाकर्ता ने यह तर्क दिया कि यह कानून महिलाओं को यौन स्वायत्तता के मौलिक अधिकार से वंचित करता है। दूसरी ओर सरकार ने इसे विवाह की पवित्रता बनाए रखने के लिए एक आवश्यक तत्व कहा। हालांकि धारा 497 को महिलाओं के खिलाफ भेदभावपूर्ण माना गया और व्यभिचार के अपराध को लिंग-तटस्थ बनाने का प्रस्ताव दिया।

मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया कि अपराधीकरण ने महिलाओं के निम्नलिखित अधिकारों को प्रतिबंधित कर दिया है

  1. संविधान के अनुच्छेद 21 (जीवन का अधिकार) के तहत प्रदत्त यौन स्वायत्तता का अधिकार।
  2. संविधान के अनुच्छेद 19 (स्वतंत्रता का अधिकार) के तहत प्रदत्त यौन अभिव्यक्ति का अधिकार।
  3. समानता का अधिकार जैसा कि संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) के तहत प्रदान किया गया है।
  4. संविधान के अनुच्छेद 15 (भेदभाव के विरुद्ध अधिकार) के तहत प्रदान किए गए भेदभाव के खिलाफ अधिकार।
  5. किसी व्यक्ति के व्यक्तिगत मामलों में राज्य का हस्तक्षेप। हालाँकि, यह पुरुषों और महिलाओं दोनों के लिए लागू होता है।

भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश माननीय न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा और एम खानविलकर ने कहा था कि आईपीसी की धारा 497 लैंगिक रूढ़िवादिता के आधार पर मतभेद पैदा करती है जो महिलाओं की दयनीय स्थिति पैदा करती है। उन्होंने यह भी कहा कि पति की सहमति पर जोर देना महिलाओं की अधीनता के बराबर है। साथ ही यह संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन करता है। उन्होंने न सिर्फ आईपीसी की धारा 497 को असंवैधानिक घोषित किया बल्कि व्यभिचार के अपराध के संबंध में सीआरपीसी की धारा 198 को भी असंवैधानिक घोषित किया।

धारा 497 के डिक्रिमिनलाइजेशन के कारण, महिलाओं को अब उनके पति की संपत्ति के रूप में नहीं माना जा सकता है। हालाँकि तलाक के लिए व्याभिचार आज भी एक आधार के रूप में मान्य है। मगर सिर्फ व्यभिचार को अपराध नहीं कहा जा सकता। इसी के साथ भारत में अब एडल्ट्री एक दंडनीय अपराध नहीं है।

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