भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 498A (अब BNS की धारा 85) को महिलाओं की रक्षा के लिए एक सशक्त कानूनी हथियार माना गया था। यह धारा पति या उसके रिश्तेदारों द्वारा महिला के साथ क्रूरता या दहेज की मांग को लेकर मानसिक या शारीरिक उत्पीड़न से बचाने के लिए लागू की गई थी। परंतु पिछले कुछ वर्षों में, न्यायपालिका ने स्वयं स्वीकार किया है कि इस कानून का कई बार दुरुपयोग भी हुआ है। इसी संदर्भ में, सुप्रीम कोर्ट के कई ऐतिहासिक फैसलों ने इस धारा की व्याख्या और दिशा-निर्देश तय किए हैं।
IPC धारा 498A (अब BNS की धारा 85)की संक्षिप्त जानकारी
- यह धारा 1983 में भारतीय दंड संहिता में जोड़ी गई थी, जो अब BNS 2023 में धारा 85 हो गयी है
- इसका उद्देश्य है महिलाओं को ससुराल पक्ष द्वारा क्रूरता, उत्पीड़न या दहेज की मांग से सुरक्षा प्रदान करना।
- दोष सिद्ध होने पर 3 साल तक की सजा और जुर्माने का प्रावधान है।
- यह गैर-जमानती, गंभीर, और गिरफ्तारी योग्य अपराध की श्रेणी में आता है।
प्रमुख केस कानून (Landmark Judgments)
Joseph Shine बनाम भारत संघ (2018) – (Adultery Case और लैंगिक समानता)
हालांकि यह केस सीधे 498A से संबंधित नहीं था, परंतु इसका प्रभाव महिला-संबंधी अपराधों की न्यायिक व्याख्या पर गहरा पड़ा।
- सुप्रीम कोर्ट ने IPC की धारा 497 (व्यभिचार) को असंवैधानिक करार दिया।
- इस धारा के अनुसार, यदि कोई पुरुष किसी विवाहित महिला से सहमति से संबंध बनाता था, तो उसे अपराध माना जाता था – लेकिन महिला को नहीं।
- यह असमानता और महिला को “पति की संपत्ति” मानने वाली मानसिकता पर आधारित थी।
कोर्ट की टिप्पणी:
कानून विवाह को अनुबंध का रूप देता है, न कि महिला को पति की संपत्ति मानता है।
प्रभाव:
इस फैसले ने लैंगिक समानता को प्राथमिकता दी और भारतीय दंड संहिता की कई धाराओं के पुनर्मूल्यांकन की प्रक्रिया को गति दी। इसी मानसिकता का प्रभाव IPC धारा 498A (अब BNS की धारा 85) जैसे कानूनों की समीक्षा में भी परिलक्षित हुआ, जहां सुप्रीम कोर्ट ने दुरुपयोग की संभावनाओं को स्वीकार किया।
Preeti Gupta बनाम झारखंड राज्य (2010) – (498A के दुरुपयोग की चेतावनी)*
- 498A के तहत झूठे मुकदमों और उनमें फंसे निर्दोष लोगों के संदर्भ में यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण फैसला है।
- इस केस में महिला ने अपने पति और उसके परिवार पर गंभीर आरोप लगाए थे, जिनमें से अधिकांश आरोप अप्रमाणित साबित हुए।
- आरोपियों में ननद-देवर तक को भी नामजद किया गया था।
- “498A के अंतर्गत झूठे मुकदमे समाज की नैतिकता को प्रभावित करते हैं। अदालतों को ऐसे मामलों में प्रथम दृष्टया साक्ष्य का सावधानी से परीक्षण करना चाहिए।”
इस फैसले ने पूरे देश में यह बहस छेड़ दी कि 498A (अब BNS की धारा 85) को पूरी तरह से गैर-जमानती रखने की व्यवस्था कितनी तार्किक है। न्यायपालिका ने यह संकेत दिया कि इस धारा का विवेकपूर्ण उपयोग होना चाहिए और अंधाधुंध गिरफ्तारी से बचा जाना चाहिए।
सुशिल कुमार शर्मा बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया (2005)
- सुप्रीम कोर्ट ने 498A को “कानूनी आतंकवाद” करार दिया था, जब इसका दुरुपयोग व्यापक रूप से सामने आया।
- कहा गया कि कानून का उद्देश्य था महिलाओं की रक्षा, लेकिन अब यह प्रतिशोध का हथियार बनता जा रहा है।
अर्नेश कुमार बनाम स्टेट ऑफ़ बिहार (2014)
यह फैसला गिरफ्तारी की प्रक्रिया पर क्रांतिकारी प्रभाव डालने वाला था। कोर्ट ने निर्देश दिए कि:
- पुलिस अधिकारी किसी भी 498A शिकायत पर तुरंत गिरफ्तारी न करें।
- पहले प्राथमिक जांच करें, फिर गिरफ्तारी पर विचार हो।
गिरफ्तारी एक अपवाद होनी चाहिए, नियम नहीं। – सुप्रीम कोर्ट
IPC धारा 498A (अब BNS की धारा 85) का दुरुपयोग: वास्तविकता या भ्रम?
- नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के अनुसार, हर साल लाखों केस 498A के तहत दर्ज होते हैं।
- परंतु इनमें से 60-70% मामलों में दोषसिद्धि नहीं हो पाती।
- बड़ी संख्या में मामले आपसी समझौते या आरोपों की पुष्टि न होने पर खारिज हो जाते हैं।
दुरुपयोग के कुछ उदाहरण:
- झूठे आरोप लगाकर पति और उसके पूरे परिवार को फंसाना।
- अलगाव या तलाक के दौरान मुआवज़ा बढ़वाने के लिए 498A का इस्तेमाल करना।
- पुलिस को डराने के लिए आपराधिक केस दर्ज करवाना।
सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए दिशा-निर्देश
- गिरफ्तारी से पहले प्राथमिक जांच अनिवार्य।
- गैर-संज्ञेय अपराधों में पुलिस को पहले मजिस्ट्रेट से अनुमति लेनी चाहिए।
- शादी के तुरंत बाद दायर शिकायतों में अतिरिक्त सतर्कता बरती जाए।
- रिश्तेदारों को नामजद करने से पहले उनकी भूमिका स्पष्ट हो।
- झूठे मुकदमों के लिए दंड का भी प्रावधान सोचा जाए।
पीड़ित पक्ष की दृष्टि से 498A का महत्त्व (अब BNS की धारा 85)
यह भी ध्यान में रखना आवश्यक है कि इस कानून की वजह से हजारों महिलाएं न्याय पा सकीं हैं। पति या ससुराल द्वारा मारपीट, मानसिक यातना या दहेज के लिए उत्पीड़न की स्थिति में IPC धारा 498A एक मजबूत सहारा है।
- महिला को अधिकार और सुरक्षा देता है।
- ससुराल पक्ष को जवाबदेह बनाता है।
- त्वरित कानूनी संरक्षण उपलब्ध कराता है।
संतुलन की आवश्यकता: कानून बनाम न्याय
किसी भी कानून का उद्देश्य होता है न्याय, न कि प्रतिशोध। सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों से यह स्पष्ट है कि कानून को निष्पक्षता और न्याय के मूलभूत सिद्धांतों के तहत लागू किया जाना चाहिए। अगर कानून का दुरुपयोग हो, तो पीड़ित का भी शोषण होता है।
निष्कर्ष-
IPC की धारा 498A (अब BNS की धारा 85) भारतीय समाज में स्त्रियों के अधिकारों की रक्षा के लिए एक अहम कदम रही है। परंतु समय के साथ-साथ इसके दुरुपयोग की घटनाएं भी सामने आईं।
कानून को हथियार नहीं, सुरक्षा कवच बनाना चाहिए।- सुप्रीम कोर्ट
इसलिए, यह आवश्यक है कि इस कानून का प्रयोग न तो अंधाधुंध किया जाए, न ही इसे कमजोर किया जाए। न्यायिक संतुलन और विवेकपूर्ण व्यवस्था से ही 498A का उद्देश्य पूर्ण हो सकता है।
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FAQs
1. क्या IPC धारा 498A के अंतर्गत तुरंत गिरफ्तारी हो सकती है?
नहीं,गिरफ्तारी से पहले प्राथमिक जांच और मजिस्ट्रेट की अनुमति आवश्यक है।
2. क्या झूठे 498A केस पर महिला को सज़ा हो सकती है?
हाँ, अगर यह साबित हो जाए कि महिला ने जानबूझकर झूठे आरोप लगाए, तो BNS की धारा के तहत कार्यवाही संभव है।
3. क्या पति के माता-पिता या रिश्तेदारों को भी फंसाया जा सकता है?
सिर्फ तभी जब उनके खिलाफ प्रथम दृष्टया साक्ष्य हों, वरना कोर्ट झूठे आरोपों को खारिज कर सकता है।
4. अगर समझौता हो जाए, तो केस बंद किया जा सकता है?
498A (अब BNS की धारा 85) एक गैर-समझौतावादी अपराध है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट के निर्देशानुसार हाईकोर्ट अनुच्छेद 482 के तहत मामला रद्द कर सकता है।
5. क्या 498A (अब BNS की धारा 85) केस में अग्रिम जमानत मिल सकती है?
हाँ, आरोपी अग्रिम जमानत (anticipatory bail) के लिए सत्र न्यायालय या उच्च न्यायालय में आवेदन कर सकता है।