हां, भारतीय कानून के अनुसार, किसी भी स्थान पर चल रहे मुकदमे को जब तक फैसला नहीं होता है, तब तक उस मुकदमे को वापस लिया जा सकता है।
यदि कोई पक्ष चाहता है कि उनके द्वारा फाइल किए गए मुकदमे को वापस लिया जाए, तो उन्हें उस मुकदमे के वकील के माध्यम से अपील या फिर मुख्यधिकारी या न्यायालय को एक लिखित अनुरोध भेजकर उस मुकदमे को वापस लेने का अनुरोध करना होगा।
सामान्य तौर पर, यदि कोर्ट कोई गलती करती है या अनुचित फैसला देती है, तो इसके खिलाफ अपील दायर की जा सकती है और अगली श्रेणी के न्यायिक अधिकारी को यह मुकदमा सुनाने का जिम्मा दिया जाता है।
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केस कब वापस लिया जा सकता है
कोर्ट से केस को वापस लेने के लिए, निम्नलिखित स्थितियों में से कम से कम एक होना आवश्यक होता है:
- जब कोर्ट को मामले की जानकारी में कोई गलती होती है, जैसे कि गलत तारीख या नाम लिखा जाता हो।
- जब फैसले में त्रुटि होती है जो फैसले के बाद सामने आती है।
- जब फैसले में कोई अंतर्निहित तकनीकी गलती होती है, जैसे कि कोई आवेदन या दावा नहीं सुना गया हो।
- जब फैसले में नियमों की धारा दोष हो, जैसे कि विधिवत नोटिस नहीं दिया गया हो।
- जब फैसले में कोई तर्क समझौता या झगड़े पर आधारित हो, जो उचित नहीं होते हैं।
- जब फैसले में उल्लंघन होता है, जैसे कि जज ने निजी आवेदकों या उनके आश्रयदाताओं के साथ जुड़े आर्थिक या अन्य वाह्य कारोबारों का लाभ उठाया हो।
केस को वापस लेने के लिए स्थितियां
केस को वापस लेने के लिए, मुख्य रूप से दो स्थितियां हो सकती हैं:
जब मुकदमे का फैसला अपील या रिव्यू के अंतर्गत होता है
धारा 362 के अंतर्गत, कोर्ट न्यायाधीश या न्यायाधीशों के द्वारा किए गए फैसलों को सुधारने का अधिकार होता है। इसके लिए उन्हें आपील करना होता है या रिव्यू याचिका दायर करनी होती है। इस प्रक्रिया के बाद, यदि कोर्ट को लगता है कि उस फैसले में कोई गलती हुई है, तो वह मुकदमे को वापस ले सकता है।
जब कोर्ट में एक गलती हो जाती है
धारा 151 के अंतर्गत, कोर्ट को अधिकार होता है कि वह अपने फैसले को वापस ले सकता है यदि वह जांच के दौरान खुद अपनी गलती का अनुमान लगाता है या उसे इस बात का अहसास होता है कि उसने फैसला गलती से दिया है। इस स्थिति में, कोर्ट आमतौर पर फैसले को वापस नहीं लेता है, लेकिन इसका अधिकार होता है।
इन सभी परिस्थितियों में कोर्ट अपना फैसला वापस लेकर नया फैसला दे सकते हैं। या फिर वह कुछ समय भी ले सकता है, जिसमे वह उस मुद्दे पर सोच विचार कर सके। उसके बाद ही फाइनल जजमेंट दे सके। हालांकि ऐसी परिस्थितियां कम ही उत्पन्न होती है परंतु कुछ मामले ऐसे भी संज्ञान में अवश्य आए हैं।
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