कस्टडी के केस में बच्चे की मर्जी को कितनी वैल्यू दी जाती है?

कस्टडी के केस में बच्चे की मर्जी को कितनी वैल्यू दी जाती है

तलाक के साथ शुरू हुई यह जंग जिसमे सबसे ज्यादा कोई पिस्ता है तो वो है कपल के बच्चे। तलाक स्पष्ट रूप ही, इसमें शामिल दोनों भागीदारों/पार्टनर्स के लिए जीवन का एक बहुत ही कठोर चरण है। हमेशा के लिए एक साथ रहने का फैसला करने वाले दो लोगों को दुर्भाग्य से अलग होना पड़ता है क्योंकि कभी-कभी चीजें ठीक नहीं होती या जिस तरह से हमने सोंचा होता हैं उस प्रकार ज़िन्दगी नहीं चलती है। सालों साथ रहने के बाद, दोनों पार्टनर्स के अलग होने के इस फैसले में सबसे ज्यादा प्रभावित उनके बच्चे होते हैं।

जिन मासूमों ने कुछ भी गलत नहीं किया है सबसे ज्यादा परेशानी उन्हें ही उठानी पड़ती है। उनके माता-पिता के “तलाक” के फैसले की वजह से जीवन उन पर किसी प्रकार की दया नहीं करता है। तलाक दाखिल करने वाले माता-पिता के लिए यह फैसला और ज्यादा मुश्किल हो जाता है जिनके बच्चे छोटे हैं और यह समझने में असमर्थ है कि उनके माता-पिता किस दौर से गुज़र रहे है या वह क्या कदम उठाने जा रहे है और इससे उनके जीवन पर क्या प्रभाव होगा। 

यहां सवाल उठता है कि भारत में बच्चे की कस्टडी माता-पिता में से कौन लेगा? भारत में क्या कोई बच्चा चुन सकता है कि उसे माता के साथ रहना है या पिता के साथ रहना है?

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बच्चे की कस्टडी कैसे तय की जाती है?

भारत में एक बच्चे की कस्टडी कोर्ट द्वारा तय की जाती है। जैसे-जैसे पीढ़ी बदली है और पिछले सालों में विकसित हुई है, वैसे ही लोगों और न्यायपालिका में भी बदलाव आया है। अब बच्चे की कस्टडी के केसों में कोर्ट द्वारा माता-पिता के अधिकार को उतनी मान्यता नहीं दी जाती बल्कि बच्चे के अधिकार को ज्यादा महत्वपूर्ण समझा जाता है। बच्चे की बुनियादी जरूरतों और आराम पर ध्यान देना ज्यादा महत्वपूर्ण है। वह पैरेंट जो बच्चे की सामाजिक, चिकित्सा, शैक्षिक और भावनात्मक आवश्यकताओं की देखभाल करने में ज्यादा सक्षम हैं, उन्हेंऐसे केसिस में कस्टडी देने की ज्यादा प्राथमिकता दी जाती है। 

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इस तरह के फैसले सिर्फ बच्चे की भलाई और उसके उज्जवल भविष्य को ध्यान में रखकर लिए जाते है। आजकल कोर्ट कपल के ऊपर ध्यान देने की बजाय बच्चों के ऊपर ज्यादा ध्यान देती है और यही देखा जाता है कि बच्चा कौन-से पैरेंट के पास खुश और शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक रूप से स्वस्थ रह सकता है। 

भारत में बच्चे की कस्टडी को, माता-पिता की कमाई उतना ज्यादा प्रभावित नहीं करती है, बल्कि जो मायने रखता है वह बच्चे को स्वस्थ और सुरक्षित वातावरण देने की क्षमता है। अगर पिता पैसे कमाते है और माँ सिर्फ गृहिणी है, जो पैसे नहीं कमाती है तो भी वह कोर्ट के द्वारा अपने बच्चे की कस्टडी ले सकती है।

इस तरह के केसिस में कोर्ट बच्चे की माता को कस्टोडियल पैरेंट बनाने का फैसला कर सकती है, अगर बच्चा कम उम्र का है और पिता को अन्य अधिकार और जिम्मेदारियां दे सकती है, जैसे की बच्चे को हर तरह की फाइनेंसियल सुविधाएं उपलब्ध कराना आदि। जिस समय बच्चा स्पष्ट उम्र तक पहुँचता है, जब वह अपने स्वयं के संरक्षक माता-पिता की इच्छा कर सकता है या वह किस माता-पिता के साथ आगे रहना चाहता/चाहती है। तो कोर्ट बच्चे से भी उनकी मर्ज़ी पूछती है कि वह बच्चा अपने किस पैरेंट के साथ रहना चाहता है।

अभिभावक और वार्ड एक्ट1890 (GAWA) के अनुसार, बच्चे से माता-पिता का चुनाव करने के लिए उस बच्चे की उम्र 9 साल या उससे ज्यादा होनी चाहिए। एक बार जब कोई बच्चा भारत में 9 साल की आयु प्राप्त कर लेता है, तो उसकी कस्टडी के लिए इच्छा पर विचार किया जाता है।

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