क्या भारत में धर्म बदलना गैरकानूनी है?

क्या भारत में धर्म बदलना गैरकानूनी है?

भारत के संविधान के आर्टिकल 25 के अनुसार, सभी व्यक्तियों को पब्लिक आर्डर, नैतिकता और स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए आज़ादी से धर्म का पालन करने, मानने और उसका प्रचार करने का अधिकार दिया गया है। जहां तक धर्म बदलने की बात है अगर कोई व्यक्ति किसी दूसरे धर्म में परिवर्तित/कन्वर्ट  होना चाहता है, तो उसे अपने राज्य/स्टेट के दवरा पास किये गए एंटी-कन्वर्ज़न एक्ट में बताये गए प्रोसेस को फॉलो करना होगा। माननीय सुप्रीम कोर्ट ने उड़ीसा और मध्य प्रदेश के राज्यों द्वारा धर्म बदलने के लिए पास किये गए एक्ट की वैलिडिटी का फैसला लेते समय यह कहा कि “… एक के लिए स्वतंत्रता क्या है दूसरे के लिए समान उपायों में स्वतंत्रता है और इसलिए किसी भी व्यक्ति को अपने धर्म में परिवर्तित करने का मौलिक अधिकार जैसी कोई चीज ना हो…”।

भारत में धर्म बदलने के अगेंस्ट कानूनों का लेजिस्लेटिव और जुडिशल हिस्ट्री –

यह पहली बार नहीं है जहां धर्म बदलने के अगेंस्ट लॉ अस्तित्व में आया हो। ब्रिटिश काल के दौरान भी धर्म बदलने पर रोक लगाने की मांग की जा रही थी। जब एक गांव में अकाल पड़ने पर वहां रहने वाले गरीब गाँव वालों का फयदा उठाते हुए मिशनरी ने उन्हें खुद की मान्यताओं को त्याग कर ईसाई धर्म को एक्सेप्ट करने के लिए प्रेरित किया तब महात्मा गांधी ने इसका विरोध किया था। 

कई रियासतों जैसे उदयपुर, कोटा, जोधपुर, आदि ने भी उस समय रायगढ़ कन्वर्ज़न एक्ट, 1936 जैसे धर्म बदलने वाले कानून का विरोध किया था, जो कि रायगढ़ राज्य द्वारा पास किया गया था।

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आज़ादी के बाद संविधान में धर्म बदलने वाले कानूनों का विरोध करने की मांग की गई थी, हालांकि उस समय संविधान सभा ने मैटर को न्यायपालिका पर छोड़ दिया था।

धर्म बदलने के अगेंस्ट देश में पास होने वाला सबसे पहला कानून मध्य प्रदेश धर्म स्वातंत्र्य अधिनियम, 1967 (“एमपी एक्ट”) था। इस एक्ट को मध्य प्रदेश राज्य द्वारा पास किया गया था। ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि राज्य सरकार द्वारा एप्पोइंट की गयी कमिटी की एक रिपोर्ट में सबमिट किया गया कि राज्य में बड़े पैमाने पर धर्म बदलने के मैटर्स देखे जा रहे थे। साथ ही, रिपोर्ट में गरीब लोगों को ठगने में मिशनरियों द्वारा किया गया कदाचार भी बताया गया था। 

बाद में उड़ीसा राज्य ने उड़ीसा धर्म स्वतंत्रता अधिनियम, 1968 पास किया जिसमें ‘प्रेरणा’ शब्द भी जोड़ा गया। दोनों एक्ट्स को उनके संबंधित राज्यों के हाई कोर्ट के सामने चुनौती दी गई थी।

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हाई कोर्ट के सामने पेश किए गए आधार यह थे – 

  • भारत के संविधान के आइटम I के “पब्लिक आर्डर”, लिस्ट II के स्किड्यूल VII के तहत राज्य यह कानों पास नहीं कर सकते है। 
  • यह कानून संविधान के आर्टिकल 25(1) के अगेंस्ट है।
  • साथ ही एक्ट के सेक्शन 5, जिसके लिए व्यक्ति को डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट को बताना जरूरी होता है, संविधान के आर्टिकल 20 (3) का उल्लंघन है।

मध्य प्रदेश के माननीय हाई कोर्ट की बेंच ने एक्ट की वैलिडिटी को बरकरार रखा और यह समझाने के लिए कई फैसलों का उल्लेख किया कि “पब्लिक आर्डर” शब्द का बहुत बड़ा अर्थ है और यह बड़े पैमाने पर धर्म-परिवर्तन और पब्लिक आर्डर में मुश्किलें पैदा कर सकते हैं। 

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साथ ही, एक्ट के सेक्शन 5 आर्टिक्ल 20(3) के अगेंस्ट नहीं है, क्योंकि इसमें धोखाधड़ी, ज़ोर-जबरदस्ती या लालच का खिन जिक्र नहीं किया गया है, बल्कि सिर्फ धर्म-परिवर्तन करने की इनफार्मेशन दी गयी है।

हालाँकि उड़ीसा हाई कोर्ट की डिवीजन बेंच ने राज्य विधानमंडल/लेजिस्लेचर द्वारा पास किये गए एक्ट को असंवैधानिक घोषित कर दिया। कोर्ट का ओपिनियन था कि संसद इस तरह के कानून को संविधान की स्किड्यूल VII के आइटम I के लिस्ट 97 के तहत पास कर सकती थी। साथ ही यह भी कहा गया कि ‘प्रेरणा’ शब्द बहुत अस्पष्ट है और लालच के तहत धर्म परिवर्तन पर रोक लगाना भारत के संविधान के आर्टिकल 25(1) का उल्लंघन है।

इस प्रकार केस भारत के माननीय सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गया, जहां 5 जजों की बेंच ने रेव स्टैनिस्लॉस v राज्य (1977) के केस में मध्य प्रदेश हाई कोर्ट के फैसले को बरकरार रखा और उड़ीसा हाई कोर्ट के फैसले को उलट दिया। इस प्रकार मध्य प्रदेश और उड़ीसा की विधानसभाओं द्वारा पास किये गए एक्ट्स मान्य हो गए। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आर्टिकल 25(1) किसी व्यक्ति को अपना धर्म छोड़कर किसी और धर्म में परिवर्तित होने का मौलिक अधिकार नहीं देता है। इसके अलावा अगर कोई जबरदस्ती किसी को धर्म परिवर्तन करने के लिए मजूर करता है, तो इससे पब्लिक आर्डर का उल्लंघन हो सकता है, जिससे बड़े पैमाने पर पूरा समाज प्रभावित हो सकता है।

लेजिस्लेटिव हिस्ट्री –

  • ऊपर बताये गए एक्ट्स के अलावा, कई राज्यों ने भी धर्म-परिवर्तन विरोधी कानून का अपना वर्ज़न पास किया है, उन्हें या तो रद्द कर दिया गया है या कोर्ट में चुनौती दी गई है।
  • तमिलनाडु राज्य ने साल 2002 में ‘तमिलनाडु जबरन धर्मांतरण निषेध अधिनियम, 2002’ पास किया। लेकिन कड़े विरोध की वजह से 2004 में इसे रद्द कर दिया गया।
  • राज्य में अपने देश कि जनजातियों की पहचान की रक्षा करने के लिए अरुणाचल प्रदेश राज्य ने साल 1978 में अरुणाचल प्रदेश धर्म स्वतंत्रता अधिनियम, 1978 पास किया था।
  • गुजरात राज्य ने गुजरात धर्म की स्वतंत्रता अधिनियम, 2003 पास किया।
  • झारखंड और उत्तराखंड ने भी साल 2017 और 2018 में धर्म परिवर्तन विरोधी कानून पास किया।
  • कर्नाटक राज्य विधान सभा ने साल 2021 में धर्म परिवर्तन विरोधी कानून से रिलेटेड, एचपी एक्ट के बेस पर कर्नाटक प्रोटेक्शन ऑफ़ राइट तो फ्रीडम ऑफ़ रिलिजन बिल, 2021 पास किया गया था। हालाँकि, यह अभी भी विधान परिषदमें पेंडिंग है।
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निष्कर्ष-

ऊपर बताये गए आर्टिक्ल से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि “फ्रीडम टू कन्वर्ट” कोई मौलिक अधिकार नहीं है और कोई भी कानून जो ज़ोर-जबरदस्ती, धोखाधड़ी या लालच से इस तरह के कन्वर्जन को रोकता है, वह भारत के संविधान के आर्टिकल 25 के तहत बताई गई लिमिट्स के अनुसार होगा। इस प्रकार, राज्य विधायिका ज़ोर-जबरदस्ती, धोखाधड़ी या लालच द्वारा कन्वर्जन को रोकने के लिए सक्षम है।

इन निषेधात्मक कानूनों की जरूरत इसीलिए है ताकि हमारी लीगल सिस्टम यह सुनिश्चित कर सके कि अपने देश की आस्थाएं, बहुलता और विविधता बनी रहे और उनका सम्मान हो।

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