भारतीय कानून के तहत अभी कोई भी ऐसा क्लियर कानून या स्पेसिफिक प्रोविज़न नहीं है, जिससे पता लगता हो कि किस सिचुएशन में एक पुलिस ऑफिसर की रिकॉर्डींग की जा सकती है और किस सिचुएशन में नहीं की जा सकती है। यह समझने के लिए रिलेटिड प्रोविज़न्स को डिफाइन करने की जरूरत है कि क्या और किन सिचुऎशन्स में एक कॉमन/सामान्य व्यक्ति को एक ऑन-ड्यूटी पुलिस ऑफिसर की रिकॉर्डिंग करने की अनुमति है।
भारत का संविधान आर्टिकल 21 के तहत जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार को सुनिश्चित करता है। के.एस. पुट्टस्वामी v. भारत यूनियन के प्रसिद्ध/फेमस केस को प्राइवेसी के अधिकार के जजमेंट के रूप में जाना जाता है, क्योंकि इस केस में काफ़ी डिबेट और पेहलूओं को समझने के बाद, प्राइवेसी के अधिकार को आर्टिकल 21 के तहत एक मौलिक अधिकार के रूप में कायम किया गया था।
हालाँकि, कोर्ट के सामने प्राइवेसी से रिलेटिड कई अलग-अलग विचार थे, इसीलिए जज नरीमन ने यह कहते हुए प्राइवेसी का कंटेंट बनाया कि इस अधिकार को पर्सनल ऑटोनोमी और पसंद के लिए भी गलत तरीके से यूज़ किये जाने की उम्मीद है।इसीलिए, इस आर्टिकल के तहत एक पुलिस ऑफ़िसर के अधिकार भी उसी तरह सुरक्षित है जैसे किसी अन्य आम व्यक्ति के अधिकार है। लेकिन पुलिस ऑफिसर्स द्वारा ऑन ड्यूटी काम करते समय, उनकी पर्सनल ऑटोनोमी का उल्लंघन नहीं माना जा सकता है। इस प्रकार, वह ऑन ड्यूटी प्राइवेसी के अधिकार के दायरे में नहीं आते हैं। एक ऑन-ड्यूटी पुलिस ऑफ़िसर को रिकॉर्ड करते समय, ध्यान रहे कि भारतीय संविधान के आर्टिकल 21 का किसी भी तरह उल्लंघन ना किया जाए।
ऑन-ड्यूटी पुलिस ऑफिसर का वीडियो बनाने का रीज़न उनके कामों से रिलेटिड कुछ सबूत इकठ्ठा करना हो सकता है। इस प्रकार, अगर कोई आम व्यक्ति ऑन-ड्यूटी ऑफिसर के कुछ एक्शन्स को गलत या अन्यायपूर्ण मानता है, तो वह पुलिस ऑफिसर के ऐसे कामों को रिकॉर्ड कर सकता है। ऐसा करके वह एक मुखबिर की तरह काम कर सकता है। एक व्यक्ति, ज्यादातर कोई एम्प्लोयी/कर्मचारी, जो एक प्राइवेट या पब्लिक आर्गेनाइजेशन के अंदर हो रहे कामों की जानकारी किसी अन्य व्यक्ति को देता है जो कि गैरकानूनी, अनैतिक, नाजायज, खतरनाक या कपटपूर्ण है, तो वह एक मुखबिर के रूप में जाना जाता है।
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केरल राज्य ने, केरला पुलिस एक्ट, 2011 के सेक्शन 33(2) के तहत विशेष रूप से इससे रिलेटिड एक प्रोविज़न शामिल किया है, जिसमें कहा गया है कि:
कोई भी पुलिस ऑफिसर किसी भी आम नागरिक को किसी भी पुलिस के काम या पब्लिक प्लेस पर किए गए बिहेवियर को कानूनी रूप से ऑडियो, वीडियो या इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों का यूज़ करके रिकॉर्ड करने से नहीं रोक सकता है। इस एक्ट को साल 2008 में कोलकाता हाई कोर्ट द्वारा भी सही ठहराया गया था, जब यह माना गया था कि एक पुलिस ऑफ़िसर सिर्फ इसलिए मोबाइल फोन नहीं ले सकता क्योंकि उसका वीडियो कैप्चर किया गया था क्योंकि ऑन ड्यूटी होने के समय वह एक पब्लिक सर्वेंट है जो अपने कर्तव्यों का पालन कर रहा है।
हालांकि, ड्यूटी पर रहते हुए एक पुलिस ऑफिसर को रिकॉर्ड करने से रिलेटिड भारतीय दंड संहिता में कुछ प्रोविजन्स हैं, जिनका गंभीरता से अनेलाइज़ किया जाना चाहिए। भारतीय दंड संहिता के सेक्शन 21 में पब्लिक सर्वेन्ट्स को डिफाइन किया गया है। इस डेफिनेशन के अनुसार, किसी भी अधिकार का यूज़ करते हुए या इस एक्ट द्वारा किसी दायित्व को निभाते हुए, कपिनेन्ट अथॉरिटी, सभी आर्बिट्रेटर, और केंद्र सरकार या सेंट्रल गवर्नमेंट द्वारा अप्पोइंट किये गए सभी ऑफिसर को पब्लिक सर्वेंट माना जाएगा। इस प्रकार, एक पुलिस ऑफिसर भी इस सेक्शन के दायरे में आएगा और उसे भी एक पब्लिक सर्वेंट ही माना जाएगा।
इसलिए, यह देखा गया है कि भारतीय कानून, नागरिकों के ‘इक्वल प्रोटेक्शन के अधिकार और पब्लिक सर्वेन्ट्स द्वारा सार्वजनिक कामों के प्रदर्शन को बेहतर करने के लिए कुछ सुरक्षा प्रदान करने की जरूरत’ के बीच बैलेंस/संतुलन बनाता है।
यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि अगर पुलिस ऑफ़िसर ऑन ड्यूटी खुद को गैरकानूनी तरीके से चलाते हैं, तो इसे जनता के द्वारा इस पर सवाल उठाये जा सकते है। इसी प्रकार, पुलिस ऑफिसर के किसी भी वैलिड काम की रिकॉर्डिंग दंड संहिता के किसी भी सेक्शन के तहत विशेष रूप से नहीं है तो यह समझा जाता है कि रिकॉर्डिंग से पहले पुलिस ऑफिसर की अनुमति लेने से यह सुनिश्चित हो गया है कि इस रिकॉडिंग से किसी व्यक्ति को आपराधिक दायित्व के अधीन नहीं किया जा रहा है। एक ऑन-ड्यूटी पुलिस ऑफिसर की रिकॉर्डिंग से रिलेटिड राज्य कानूनों को भी ध्यान में रखना जरूरी है, और अगर कानून ऐसे कामों को बैन करते हैं, तो किसी को रिकॉर्डिंग से बचना चाहिए।