वर्जिनिटी की कोई चिकित्सा परिभाषा नहीं है फिर यह शुद्धता का प्रतीक क्यों बन गया है? सभी जानते है कि शादी एक पवित्र बंधन है। शादी के लिए लोगों के कई ख्वाब और शर्तें होती है। जिनमे से एक सबसे बड़ी शर्त यह होती है की उनका पार्टनर खासकर लड़की वर्जिन होनी चाहिए। जिस व्यक्ति ने कभी अपनी ज़िंदगी में किसी के भी साथ सेक्सुअल रिलेशन न बनाये हो, उस व्यक्ति को विर्जिन कहा जाता है।
ऐसे ही एक केस में दिल्ली हाई कोर्ट ने एक महिला आरोपी पर विर्जिनिटी टेस्ट कराने पर कड़ा असंतोष जताया। साथ ही, इसे “सेक्सिस्ट” भी कहा। कोर्ट ने कहा कि ‘विर्जिनिटी’ शब्द की भले ही कोई निश्चित वैज्ञानिक और चिकित्सीय परिभाषा नहीं है, लेकिन लोगों की सोंच के अंदर यह एक महिला की ‘पवित्रता की निशानी’ बन गया है।
यह कहते हुए कि “विर्जिनिटी टेस्ट” के लिए कोई कानूनी प्रोसेस नहीं है। कोर्ट ने कहा कि इस तरह के टेस्ट करना गरिमा (dignity) के अधिकार का उल्लंघन करना है और यह अमानवीय व्यवहार का एक रूप है।
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जज स्वर्ण कांता शर्मा की कोर्ट ने सिस्टर सेफी की पिटीशन पर सुनवाई करते हुए यह टिप्पणी की, जिन्हें कथित तौर पर 2008 में एक नन के मृत्यु के आपराधिक मामले या क्रिमिनल केस के संबंध में केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) द्वारा “विर्जिनिटी टेस्ट” से गुजरने के लिए मजबूर किया गया था। पिटीशनर ने आरोप लगाया कि टेस्ट के परिणाम या रिजल्ट्स लीक हो गए थे।
हाई कोर्ट ने बताया कि एक महिला की “कस्टोडियल डिग्निटी” के तहत पुलिस हिरासत में रहते हुए भी उसे सम्मान के साथ जीने का अधिकार है।
जज शर्मा ने कहा कि यह घोषित किया जाता है कि एक महिला चाहे वह पुलिस या जुडिशल कस्टडी के अंदर है या उसे जांच के लिए उसे बुलाया गया हो उसे तब भी अपनी गरिमा के साथ जीने की आज़ादी और हक़ है। और उसे ऐसे किसी भी टेस्ट के लिए मजबूर करना संविधान के आर्टिक्ल 21 का उल्लंघन करना है, जिसमें गरिमा का अधिकार शामिल है।
जज ने कहा
इसलिए, यह कोर्ट मानती है कि यह टेस्ट सेक्सिस्ट है और एक महिला अभियुक्त (accused) को भी गरिमा से रहने का अधिकार होता है और ऐसा करना उसके मानवाधिकार का उल्लंघन है।
कोर्ट ने यह भी कहा कि एक महिला आरोपी का विर्जिनिटी टेस्ट करना ना केवल उसकी शारीरिक अखंडता (integrity) के साथ, बल्कि उसकी मनोवैज्ञानिक अखंडता के साथ भी जांच एजेंसी का हस्तक्षेप है।
मौलिक अधिकारों के सिद्धांतों द्वारा मंजूरी होने की वजह से इस कोर्ट के लिए यह मानना बहुत मुश्किल होगा कि एक व्यक्ति जो पुलिस कस्टडी में है वह खुद के शारीरिक अखंडता के अधिकार को पुलिस ऑफिसर्स को समर्पित कर देता है और उन्हें यह सब करने की इजाज़त मिल जाती है। और यह सब इसीलिए होता है कि चल रहे केस में आरोपी के शरीर के माध्यम से सबूत ढूंढे जाये।
कोर्ट ने यह भी कहा कि किसी व्यक्ति पर अपराध करने या गिरफ्तार होने का आरोप लगने पर भी गरिमा के अधिकार को माफ नहीं किया जाता है।
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