सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में दिलीप हरिरामनी v/s बैंक ऑफ बड़ौदा के केस के दौरान कहा कि नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट एक्ट के सेक्शन 138 के तहत चेक बाउंस होने पर किसी व्यक्ति पर क्रिमिनल लायबिलिटी, सिर्फ इसलिए नहीं लगाई जा सकती क्योंकि वह भी लोन लेने वाली कम्पनी का एक पार्टनर है या वह उस लोन का गारंटर है।
केस की हियरिंग जस्टिस अजय रस्तोगी और संजीव खन्ना की बेंच के सामने की जा रही थी, जहां यह देखा गया कि नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट के सेक्शन 141 के तहत क्रिमिनल लायबिलिटी का फैसला सिर्फ इसलिए नहीं किया जा सकता है क्योंकि कम्पनी के पार्टनर के पास सिविल लायबिलिटी है। आगे यह भी देखा गया कि सेक्शन 141 के तहत विकेरियस लायबिलिटी तभी लागू करता है, जब कंपनी/फर्म द्वारा अपराध किया जाता है।
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बैकग्राउंड:
रेस्पोंडेंट बैंक ऑफ बड़ौदा ने एम्/एस ग्लोबल पैकेजिंग को टर्म लोन दिया था, जिसमें से लोन के लिए अपील करने वाला कम्पनी का पार्टनर है। फर्म में एक पार्टनर ने फर्म को दिए गए लोन के लिए उसके नाम पर तीन चेक जारी किए। चेक बाउंस होने की वजह से बैंक ने उस पार्टनर के खिलाफ एनआई एक्ट के सेक्शन 138 के तहत केस फाइल कर दिया था।
जब केस सुप्रीम कोर्ट पहुंचा, तो कोर्ट ने कहा कि अपीलकर्ता ने कोई चेक जारी नहीं किया था। कोर्ट ने फैसला किया कि चेक जारी करने में अपीलकर्ता की सहमति थी इस बात को साबित करने के लिए कोई सबूत नहीं है। इस प्रकार, अपीलकर्ता को दोषी नहीं ठहराया जा सकता है।
कोर्ट ने केस का फैसला करने के लिए गिरधारी लाल गुप्ता बनाम डी एम मेहता और अन्य के केस को भी ध्यान में रखा।
साथ ही, सुप्रीम कोर्ट ने माना कि अपीलकर्ता को सिर्फ इसलिए दोषी नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि वह फर्म में पार्टनर है। इसलिए, कोर्ट ने लोअर कोर्ट्स द्वारा लगाए गए दोष को रद्द कर दिया और इस प्रकार अपीलकर्ता को बरी कर दिया।
निष्कर्ष:
निष्कर्ष के रूप में, यह कहा जा सकता है कि केवल इसलिए कि एक व्यक्ति एक फर्म में पार्टनर है, उसे फर्म के किसी अन्य पार्टनर द्वारा किए गए अपराधों के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है और ना ही उस पर केवल तभी आरोप लगाया जा सकता है जब वह किसी फर्म में लिए गए लोन का गारंटर हो।
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