भारत में बेटी के शादी के वक्त उसे उपहार दिए जाते हैं। इसे दहेज़ कहते हैं। इनमे कीमती सामान, गहने कपडे आदि शामिल होते हैं। यहाँ तक कि नकद रपये भी इस उपहार का हिस्सा होते हैं। पहले यह परम्परा बेटी के घरवालों की खुशी से होती थी लेकिन बाद में इसने कुप्रथा का रूप ले लिया। और दहेज देना बेटी के घरवालों की मजबूरी बन गयी। अब दहेज बेटी की संपती या उपहार नहीं रह गया बल्कि वो उसका दुश्मन बन गया। दहेज़ बेटी के नाम होने के बावजूद भी बेटी का नहीं होता। वो उसकी मालिक नहीं होती।
इतना ही नहीं आज दहेज लालच की प्रथा हो गयी है। दहेज देने के बावजूद भी बहू को ससुराल में कष्ट और प्रताड़ना सहनी पड़ती है। देहज में मिली सम्पत्ती बेटी के नाम में नहीं होती और शादी के बाद जो परिवार मिला वो ही उसका दुश्मन बन जाता है। ऐसे में ना तो वधू के पास उसकी संपदा रह जाती है और ना सुरक्षा।
लेकिन हमारे कानून में दहेज या कन्या धन को लेकर कुछ प्रावधान हैं। दहेज़ निषेध अधिनियम 1961 की धारा 6 में यह प्रावधान किया गया है कि शादी के 3 महीने के अन्दर-अन्दर दहेज की सभी वस्तुएं वधू को हस्तान्तिरित करनी चाहिये। चाहे दहेज विवाह के समय या विवाह के उपरान्त मिला हो, इसका हस्तांतरण अनिवार्य है।
हालांकि अब बाल विवाह करना भी अपराध है लेकिन फिर भी यदि किसी परिस्थति में शादी हो जाए तो, दहेज़ की संपत्ति उसके किसी ट्रस्टी के संरक्षण में रहेगी। साथ ही बहू के व्यस्क होते ही उसे दहेज की संपदा 3 महीनों के भीतर बहू को सौंपनी होगी। यदि ट्रस्टी ऐसा नहीं करता है तो उसे कम से कम 6 माह का कारावास और अधिकतम दो वर्ष के कारावास की सजा दी जा सकती है। साथ ही 10 हजार रूपये का जुर्माना भी लगाया जा सकता है। यह सजा उस सजा के अतिरिक्त रहेगी जो उस पर दहेज की माँग करने या दहेज संबंधी अन्य मामलो में मिली होगी। यदि दहेज संपदा हस्तान्तरण के पहली वधू की मृत्यु हो जाती है तो दहेज में मिला सामान बहू के उत्तराधिकारी को हस्तान्तरिति करना होगा।
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दहेज अपराध पर संसदीय समिति की राय
कुछ लोगों की राय थी कि दहेज अपराध संज्ञेय अपराध होने चाहिये। परन्तु इस विषय पर संसदीय समिति का कहना था कि वो दहेज अपराधों को संज्ञेय अपराध बनाने के पक्ष में तो है। लेकिन अपराध के दुरूपयोग से डरती है। संज्ञेय यानी कोंग्नीजेबल अपराध होने की स्थिति में पुलिस किसी भी व्यक्ति को संशय होने पर ही गिरफ्तार कर सकती है। ऐसा भी हो सकता है कि विवाह के समय ही पुलिस वर या उसके नातेदार को गिरफ्तार कर ले। अतः समिति ने सुझाव दिया कि अपराध को संज्ञेय बनाने के साथ यह प्रावधान होना चाहिये कि दहेज़ मामलों में गिरफ्तारी बिना वारंट या बिना मजिस्ट्रेट की आज्ञा के नहीं हो सकती। ताकि केसी भी व्यक्ति को उत्पीडन से बछाया जा सके। समिति की राय यह भी थी कि अपराध शमनीय हो।